किसी नेक दिल इंसान ने मुझे सलाह दी कि मैं ‘परसाई रचनावली’ पाठ्य पुस्तक की तरह पढ़ डालूँ। रचनावली का खंड तीन का आधा भाग खत्म ही हुआ था कि इस बीच ‘मालिश महापुराण’ (व्यंग्य संग्रह) हाथ लगा। सुशील सिद्धार्थ जी के इस व्यंग्य संग्रह का शीर्षक आकर्षित करता है। मैंने सोचा कि क्यों न इसे पढ़ना शुरू किया जाए। डर था कि कहीं परसाई रचनावली पढ़ने के‘मूड’ और ‘मोमेंटम’ मे कोई अवरोध न आ जाए। मगर ‘मालिश महापुराण’ पढ़ते हुए, मुझे प्रारम्भ से लेकर अंत तक ऐसा कभी नहीं लगा कि मैने परसाई रचनावली बीच मे छोड़ दी है। जैसे एक अच्छे संगीत मे ‘रिदम’, ‘मेलोडी’, ‘बोल’, और ‘हारमोनी’ का सही ढंग से समावेश होना आवश्यक है, वैसे ही एक अच्छे व्यंग्य मे भी इन्हीं बिन्दुओं का होना आवश्यक है। सुशील सुद्धार्थ जी के व्यंग्य संग्रह ‘मालिश महापुराण’ मे ये सबकुछ है।
सुशीलजी के इस व्यंग्य संग्रह का हर एक लेख अपने आप मे सम्पूर्ण व्यंग्य अध्याय है। संग्रह के हर लेख मे ‘व्यंग्य लेखन’ मे महत्वपूर्ण कहे जाने वाले ‘भाषा’, ‘विट’, ‘आयरनी’ और ‘सरोकार’ मौजूद हैं। उनकी एक रचना ‘रेखाएँ’ छोड़ दें, तो हम पाएंगे कि हर लेख मे हास्य को साधक के रूप पे प्रयोग किया गया है। जिसके कारण पढ़ने वाले के चेहरे पर मुस्कान तो आती है, किन्तु मन ही मन वह तिलमिला उठता है। एक नश्तर सा चुभता है। कई बार तो पाठक स्वयं से ही प्रश्न कर बैठता है कि जिस विसंगति की बात व्यंग्यकार कर रहा है, वह कहीं पाठक के भीतर भी तो नहीं है? एक जगह वे लिखते हैं – ‘हाथ फेरना मंगलाचरण है। इस तरह से फेरना कि लगे ही नहीं कि फेरा जा रहा है। ठीक तरह से फेरने से खूंखार पशु, शातिर नेता, अनुभवी संपादक, चतुर आलोचक आदि वश मे रहते हैं’ (पृष्ठ 25)। यहाँ पाठक खुद को हाथ फेरने वाला याकि हाथ फिरवाने वाला, कुछ भी समझ सकता है।
कई स्थानों पे सुशील जी के व्यंग्य लेख ‘हरीशंकर परसाई’ जी की याद दिलाते हैं। वे जिस तरह से सूक्ति वाक्य और नए मुहावरे गढ़ते हैं, वह अतुलनीय है। उदाहरण के तौर पर ऐसे ही कुछ चुटीले सूक्ति और कटूक्ति वाक्य नीचे दिए हैं :-
- हमारे समाज मे भाव निबंध की मानसिकता प्रमुख है। बस इसी मे जियो, इसी मे मरो। (पृष्ठ 17)
- सच्चे मित्र अपने साथी का चारित्रिक पतन प्रमाणित करने के लिए ही जीवित रहते हैं। (पृष्ठ 38)
- भ्रम स्वयं एक सिंहासन है जिसपर बैठने वाला व्यक्ति कभी उतरना नहीं चाहता। (पृष्ठ 43)
- ज़्यादातर चुप रहो। लोग विद्वान मानेंगे। (पृष्ठ 76)
- जो न खरीद सकता है, न बिक सकता है, वह इस जमाने मे नहीं जी सकता है। (पृष्ठ 83)
- बेवकूफी को रहस्य भरी गंभीरता मे छुपाना ही असली साधना है। (पृष्ठ 87)
- मित्रों के दुख की नींव पर ही हमारी सुख की हवेली तैयार होती है। (पृष्ठ 123)
- मरी परम्पराएँ ज़िंदा होने का नसीब लिखती हैं। (पृष्ठ 125)
- सवालों से ही लोकतन्त्र की शोभा है। जो आदमी उत्तर देने की ज़ुर्रत करे, उसकी प्यास देशद्रोह मानी जाती है। (पृष्ठ 127)
सुशील जी ने इस संग्रह मे राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक आदि विषयों की विसंगति पर सरोकार को समेटते हुए, हास्य से साधते हुए, अच्छी चीर-फाड़ करी है। राजनीति, धर्म, सेवा, साहित्य, अर्थ आदि के नाम पर ओढ़े गए मुखौटों को अनावृत किया है। हँसते-हँसते ऐसा तीखा प्रहार किया है कि आदमी दर पे घायल हो जाए। संग्रह मे साहित्य और राजनीति से जुड़े व्यंग्य बहुतेरे हैं। जैसे कि ‘उत्पादन का डिब्बा और विवरण’, ‘क्रौनिक कवि की सुहागरात’, ‘अब तो बड़े बन जाओ’, ‘मेरे देश की संसद मौन है’, ‘मालिश महापुराण’, ‘नया और नया’, ‘जनाब फिर आ गए’ ‘मुझे भी बुलाओ’, ‘कुत्ता-कुतिया संवाद’ आदि।
व्यंग्य मे सरोकार और मार्मिकता की बात हमेशा की जाती ही। सुशील जी के व्यंगों मे सरोकार स्वतः दौड़े चले आता है। ‘रेखाएँ’एक बेहद गंभीर और मार्मिक व्यंग्य रचना है। इस रचना मे ढोंगियों के चेहरे परत दर परत खोले गए हैं। किसी गैर की मौत या कि दुख मे आदमी बस अपना मतलब देखता है। ‘क्या-क्या दिख रहा है’ के पहले दो वाक्य ही आदमी की कम होती संवेदनशीलता एवं मानवीयता पे गहरी चोट करते हैं। वे कहते हैं, ‘मेरी समस्या गंभीर है। गंभीर इसीलिए क्योंकि मेरी है’।
मुहावरे, लोकोक्ति, कविता, शेर, आदि इस संग्रह को सशक्त बनाते हैं। इससे पता चलता है कि एक अच्छे व्यंग्यकार की न सिर्फ व्यंग्य-पठन, वरन साहित्य की दूसरी विधाओं (कहानी, कविता, गज़ल, उपन्यास आदि) पे भी अच्छी एवं सशक्त पकड़ होती है। काव्यात्मकता के कई उदाहरण हैं। पाठक इन्हे सरलतापूर्वक देख सकता है। कई जगह बात कविता मे नहीं कही गयी। लेकिन फिर भी काव्यात्मक शैली मे है। उदाहरण हेतु – ‘और सुनाइए’ मे वे लिखते हैं – ‘मौन रहने से बड़ी सहायता मिलती है। लोग आपकी बात के उत्तर मे हूं-हूं से काम चलाते रहेंगे। आप कह रहे हैं वे सुन रहे हैं। शायद एक एक शब्द गुन रहे हैं। प्रपंच लायक सूत्र चुन रहे हैं। कुछ दिन बाद ख़बर मिलेगी कि कहीं झीनी-झीनी चदरिया बुन रहे हैं। किसी अंतरंग गोष्ठी मे सूत्रों को अपनी सुविधा से फैलाकर तबीयत से धुन रहे हैं’। (पृष्ठ 123)
विदघ्तापूर्ण और काव्यात्मक शैली, वक्रोक्ति और कटूक्ति का समावेश इस व्यंग्य संग्रह को पठनीय बनाता है। व्यंग्यकारों की बढ़ती भीड़ मे इसे अवश्य ही एक अलग स्थान मिलेगा।
-अभिषेक अवस्थी