Tuesday, October 13, 2015



सुर, लय और ताल से भरपूर व्यंग्य...

किसी नेक दिल इंसान ने मुझे सलाह दी कि मैं परसाई रचनावली पाठ्य पुस्तक की तरह पढ़ डालूँ। रचनावली का खंड तीन का आधा भाग खत्म ही हुआ था कि इस बीच मालिश महापुराण (व्यंग्य संग्रह) हाथ लगा। सुशील सिद्धार्थ जी के इस व्यंग्य संग्रह का शीर्षक आकर्षित करता है। मैंने सोचा कि क्यों न इसे पढ़ना शुरू किया जाए। डर था कि कहीं परसाई रचनावली पढ़ने केमूड और मोमेंटम मे कोई अवरोध न आ जाए। मगर मालिश महापुराण पढ़ते हुए, मुझे प्रारम्भ से लेकर अंत तक ऐसा कभी नहीं लगा कि मैने परसाई रचनावली बीच मे छोड़ दी है। जैसे एक अच्छे संगीत मे रिदम’, मेलोडी’, बोल’, और हारमोनी का सही ढंग से समावेश होना आवश्यक है, वैसे ही एक अच्छे व्यंग्य मे भी इन्हीं बिन्दुओं का होना आवश्यक है। सुशील सुद्धार्थ जी के व्यंग्य संग्रह मालिश महापुराण मे ये सबकुछ है।  
सुशीलजी के इस व्यंग्य संग्रह का हर एक लेख अपने आप मे सम्पूर्ण व्यंग्य अध्याय है। संग्रह के हर लेख मे व्यंग्य लेखन मे महत्वपूर्ण कहे जाने वाले भाषा, विट’, आयरनी और सरोकार मौजूद हैं। उनकी एक रचना रेखाएँ छोड़ दें, तो हम पाएंगे कि हर लेख मे हास्य को साधक के रूप पे प्रयोग किया गया है। जिसके कारण पढ़ने वाले के चेहरे पर मुस्कान तो आती है, किन्तु मन ही मन वह तिलमिला उठता है। एक नश्तर सा चुभता है। कई बार तो पाठक स्वयं से ही प्रश्न कर बैठता है कि जिस विसंगति की बात व्यंग्यकार कर रहा है, वह कहीं पाठक के भीतर भी तो नहीं है? एक जगह वे लिखते हैं – हाथ फेरना मंगलाचरण है। इस तरह से फेरना कि लगे ही नहीं कि फेरा जा रहा है। ठीक तरह से फेरने से खूंखार पशु, शातिर नेता, अनुभवी संपादक, चतुर आलोचक आदि वश मे रहते हैं (पृष्ठ 25)। यहाँ पाठक खुद को हाथ फेरने वाला याकि हाथ फिरवाने वाला, कुछ भी समझ सकता है।  
कई स्थानों पे सुशील जी के व्यंग्य लेख हरीशंकर परसाई जी की याद दिलाते हैं। वे जिस तरह से सूक्ति वाक्य और नए मुहावरे गढ़ते हैं, वह अतुलनीय है। उदाहरण के तौर पर ऐसे ही कुछ चुटीले सूक्ति और कटूक्ति वाक्य नीचे दिए हैं :-
-    हमारे समाज मे भाव निबंध की मानसिकता प्रमुख है। बस इसी मे जियो, इसी मे मरो। (पृष्ठ 17)
-    विज्ञान ने अद्भुत रूप से पाखंड को रक्तबीज बना दिया है। (पृष्ठ 31)   
-    सच्चे मित्र अपने साथी का चारित्रिक पतन प्रमाणित करने के लिए ही जीवित रहते हैं। (पृष्ठ 38)
-    भ्रम स्वयं एक सिंहासन है जिसपर बैठने वाला व्यक्ति कभी उतरना नहीं चाहता। (पृष्ठ 43)
-    ज़्यादातर चुप रहो। लोग विद्वान मानेंगे। (पृष्ठ 76)
-    जो न खरीद सकता है, न बिक सकता है, वह इस जमाने मे नहीं जी सकता है। (पृष्ठ 83)
-    बेवकूफी को रहस्य भरी गंभीरता मे छुपाना ही असली साधना है। (पृष्ठ 87)
-    मित्रों के दुख की नींव पर ही हमारी सुख की हवेली तैयार होती है। (पृष्ठ 123)
-    मरी परम्पराएँ ज़िंदा होने का नसीब लिखती हैं। (पृष्ठ 125)
-    सवालों से ही लोकतन्त्र की शोभा है। जो आदमी उत्तर देने की ज़ुर्रत करे, उसकी प्यास देशद्रोह मानी जाती है। (पृष्ठ 127)

सुशील जी ने इस संग्रह मे राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक आदि विषयों की विसंगति पर सरोकार को समेटते हुए, हास्य से साधते हुए, अच्छी चीर-फाड़ करी है। राजनीति, धर्म, सेवा, साहित्य, अर्थ आदि के नाम पर ओढ़े गए मुखौटों को अनावृत किया है। हँसते-हँसते ऐसा तीखा प्रहार किया है कि आदमी दर पे घायल हो जाए। संग्रह मे साहित्य और राजनीति से जुड़े व्यंग्य बहुतेरे हैं। जैसे कि उत्पादन का डिब्बा और विवरण’, क्रौनिक कवि की सुहागरात’, अब तो बड़े बन जाओ’, मेरे देश की संसद मौन है’, मालिश महापुराण’, नया और नया’, जनाब फिर आ गए मुझे भी बुलाओ’, कुत्ता-कुतिया संवाद आदि
व्यंग्य मे सरोकार और मार्मिकता की बात हमेशा की जाती ही। सुशील जी के व्यंगों मे सरोकार स्वतः दौड़े चले आता है। रेखाएँएक बेहद गंभीर और मार्मिक व्यंग्य रचना है। इस रचना मे ढोंगियों के चेहरे परत दर परत खोले गए हैं। किसी गैर की मौत या कि दुख मे आदमी बस अपना मतलब देखता है। क्या-क्या दिख रहा है के पहले दो वाक्य ही आदमी की कम होती संवेदनशीलता एवं मानवीयता पे गहरी चोट करते हैं। वे कहते हैं, मेरी समस्या गंभीर है। गंभीर इसीलिए क्योंकि मेरी है
मुहावरे, लोकोक्ति, कविता, शेर, आदि इस संग्रह को सशक्त बनाते हैं। इससे पता चलता है कि एक अच्छे व्यंग्यकार की न सिर्फ व्यंग्य-पठन, वरन साहित्य की दूसरी विधाओं (कहानी, कविता, गज़ल, उपन्यास आदि) पे भी अच्छी एवं सशक्त पकड़ होती है। काव्यात्मकता के कई उदाहरण हैं। पाठक इन्हे सरलतापूर्वक देख सकता है। कई जगह बात कविता मे नहीं कही गयी। लेकिन फिर भी काव्यात्मक शैली मे है। उदाहरण हेतु – और सुनाइए मे वे लिखते हैं – मौन रहने से बड़ी सहायता मिलती है। लोग आपकी बात के उत्तर मे हूं-हूं से काम चलाते रहेंगे। आप कह रहे हैं वे सुन रहे हैं। शायद एक एक शब्द गुन रहे हैं। प्रपंच लायक सूत्र चुन रहे हैं। कुछ दिन बाद ख़बर मिलेगी कि कहीं झीनी-झीनी चदरिया बुन रहे हैं। किसी अंतरंग गोष्ठी मे सूत्रों को अपनी सुविधा से फैलाकर तबीयत से धुन रहे हैं (पृष्ठ 123) 
विदघ्तापूर्ण और काव्यात्मक शैली, वक्रोक्ति और कटूक्ति का समावेश इस व्यंग्य संग्रह को पठनीय बनाता है। व्यंग्यकारों की बढ़ती भीड़ मे इसे अवश्य ही एक अलग स्थान मिलेगा।   
           -अभिषेक अवस्थी

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Tuesday, September 8, 2015

सुशील सिद्धार्थ और नारद की चिंता



Sushil Siddharth नाम मैंने सुन रखा था। श्रीलाल शुक्ल के साथ लिये कुछ इंटरव्यू पढ़े थे उनके। इसके अलावा और कुछ जानकारी नहीँ थी उनके बारे में। उनका लिखा कोई लेख भी ध्यान नहीँ था।

पहली बार उनसे तब बात हुई जब वे अपने इलाज के सिलसिले में अस्पताल में भर्ती हुए और यह खबर शायद संतोष त्रिवेदी ने साझा की थी। बीमारी की खबर के साथ उनका फोन नम्बर भी था।नम्बर था तो उनको शुभकामनाएं देने के बाद उनके फेसबुक खाते को देखना शुरू किया। यह हिंदी साहित्य की परम्परा के अनुरूप ही था जिसके अनुसार साहित्यकार पर ध्यान तब ही जाता है जब वह बीमार होता है या फिर उसको कोई इनाम मिलता है।कभी-कभी ध्यान दिलाने के लिए इनाम लौटाना भी काम आता है पर उसके लिए इनाम मिलना भी तो चाहिए।

उनकी गतिविधियाँ और अवधी की उनकी कवितायें पढ़ीं। पर पता लगा कि अवधी सम्राट वंशीधर शुक्ल और पढ़ीस जी के इलाके वाले भाईसाहब की ख्याति व्यंग्यकार के रूप में ज्यादा है।

व्यंग्यकार से पूछकर उनकी किताब 'नारद की चिंता' मंगाई गई। किताब मंगवाने में काम भर के करम हो गए। नेटबैंकिग से भुगतान की सुविधा नहीं थी ऑनलाइन बुकिंग में। अंतत: बेटे की शरण में गए। बेटे ने फौरन किताब अपने कार्ड से भुगतान करके बुक करवा दी। हमने आल्हादित होकर सोचा:

'जिनके लड़िका समरथ हुइगे उनका कौन पड़ी परवाह।'
अब यह अलग बात कि वर्षों पहले का सरिता/ मुक्ता में पढ़ा विज्ञापन- 'क्या आप मांग कर खाते हैं' इतना हावी था कि किताब के पैसों में चाय पानी के भी जोड़कर बेटे को फौरन भेज दिए। बेटे ने भी पुत्र धर्म का पालन करते हुए कहा-अरे पैसे भेजने की क्या जरूरत थी।

किताब बुक करवाने के बाद कुछ दिन बेकली रही। कुछ देर हुई आने में। फिर भूल गए। जैसे ही भूले तो एक दिन सुखद आश्चर्य के रूप में किताब पधार गई।यह भी लगा कि सुखद आश्चर्य के लिए भूल जाना भी अच्छा उपाय है।

अनूप शुक्ल की फ़ोटो.किताब मिलते ही हमने उसको खोला और बीच से पढ़ना शुरू किया। यह कुछ ऐसे ही जैसे कोई किसी के घर जाए तो सीधे उसके आँगन में पहुंच जाये। अब चूँकि आँगन तो रहे नहीं सो आप आँगन की जगह किचन पढ़िए या फिर मन करे तो बेडरूम। यह भी कह सकते हैं कि किसी से मिलते ही उसके दिल तक पहुंचने की कोशिश करें। जो भी समझना हो समझ लें। पूरी छूट है आपको। सुझाव हमारा, चुनाव आपका।
अब बीच का जो पन्ना खुला वह 'आदत' लेख था। उसमें भी सबसे जो वाक्य पढ़ा वह यह था--'आदत हो जाये तो बिना सिगरेट या चाय के प्रेशर नहीं बनाता, बिना प्रवचन सुने काली कमाई हजम नहीं होती।'
'बिना प्रवचन सुने काली कमाई हजम नहीं होती।' पढ़ते ही हम तड़ से मुरीद हो गए लेखक के।(बतर्ज आधा गांव - ने देखा और तड़ से आशिक हो गयी) हमको भड़ से राग दरबारी की पंक्ति याद आई -'वे हंसे और आगे का काम भांग ने सम्भाल लिया।' यह भारतीय नौकरशाही/समाज का विद्रूप है। लोग काला धन कमाते हैं। प्रवचन सुनकर उनको लगता है पच गयी कमाई। प्रवचन काली कमाई का हाजमोला है। यह भी कि प्रवचन सुनने वालों में बहुतायत उनकी होती है जो काली कमाई करते हैं। या फिर यह कि प्रवचन बाबा अपना प्रवचन फंदा उन पर डालते हैं जिनके पास काली कमाई की सुविधा हो। सबके लिए 'विन-विन' स्थिति।

संयोग कि सबसे पहला वाक्य ही जो पढ़ा उसमें बहुकोणीय व्यंग्य दिखा। पहली पढ़न में ही मुरीद हो जाने जैसा भाव जगा। पहली नजर में मुरीद होना पहले प्यार सरीखा होता है। सब कुछ अच्छा-अच्छा सा लगता है। फिर कई लेख पढ़े। बीच-बीच से पढ़ते हैं। सोचते हैं कि उसके बारे में लिखें लेकिन लिखना स्थगित हो जाता है।
किताब पढ़ते-पढ़ते सुशील जी के बारे में और भी काफी कुछ जानने को मिला। बेहतरीन वक्ता हैं। वलेश (व्यंग्यकार लेखन समिति) में व्हाट्सऐप पर जो ग्रुप बना है उसमें उनके वक्तव्य मैं जरूर सुनता हूँ।बहुत पढ़े-लिखे हैं। कढ़े भी कम नहीं हैं।सघन जीवन अनुभव की बानगी उनके वक्तव्यों में झलकती है।ग्रुप के एडमिन हैं सो शरारत-संगत में भी अपना भरपूर योगदान करते रहते हैं।

लेखन में मौके के हिसाब से अपने पढ़े हुए उद्धरण पढ़वाते रहते हैं। लेकिन कभी-कभी यह उद्धरण बहुलता ऐसी लगती कि मिलन के क्षणों में आप अपने संगी से किसी दूसरे व्यक्ति की तारीफ़ करने लगें या फिर सरपट चलती गाड़ी के सामने अचानक कोई स्पीड ब्रेकर आ जाए।

किताब पढ़ते हुए और सुशील सिद्धार्थ के बारे में जानते हुए अपनी और हिंदी साहित्य की स्थिति पर भी तरस आया। काम भर का पढ़ा लिखा होने के बावजूद मैं अपने समय के एक अच्छे लेखक के बारे में इतना कम जानता हूँ कि उसकी पहली किताब 50 पार का हो जाने के बाद पढ़ रहा हूँ। व्यंग्य हमारे लिए परसाई, जोशी, श्रीलाल और रवीन्द्रनाथ त्यागी से होते हुए ज्ञान देहरी पर ठिठका खड़ा है। किसी और को पढ़ते भी हैं तो इस मंशा से कि पढ़कर फटाक से ख़ारिज करें। बवाल कटे। आलोक पुराणिक जरूर बार-बार सामने आते रहते हैं। नियमित लिखते और छपते रहने के चलते उनको पढ़ना होता रहता है।

सुशील सिद्धार्थ जी की व्यक्तिगत जिंदगी के बारे में यही पता है कि किताबघर में नौकरी करते हैं। दिल के बीमारी झेल चुके हैं। मुस्कराते हैं तो हसीन लगते हैं। बातचीत में कभी हंसते हुए सुनता हूँ तो लगता है और भी खूबसूरत लगते होंगे।

सुशील सिद्धार्थ से मिला नहीं मैं। लेकिन अब चूंकि उनके बारे में लिख रहा हूँ तो उनसे नजदीकी जाहिर करना जरुरी है। उसका एक सरल और कम खर्चीला तरीका यह जाहिर किया जाए कि हममें और उनमें किया साझा है। तो हममें और उनमें जो साझा है वह यह कि हम लोग श्रीलाल शुक्ल के साझा मुरीद रहे। बड़े होने और लखनऊ के पास रहने के कारण वे ज्यादा सानिध्य सुख पाये शुक्ल जी का यह उनका सौभाग्य। दूसरी बात यह कि हम लोग एक ही इलाके के हैं। लखनऊ को केंद्र मानकर अगर 100 किमी की त्रिज्या का वृत्त बनाया जाये तो हमारे गांव जरूर आ जाएंगे।

और भी तमाम बातें साझा बाते हैं बताने को लेकिन हमें अचानक परसाई जी के संस्मरण लिखने के अंदाज ने डिस्टर्ब कर दिया। लोग जब किसी के बारे में लिखते हैं तो दूसरे के बारे में लिखते हुये सारी रौशनी अपने ऊपर फेंकते रहते हैं। परसाई जी कभी ऐसा नहीं करते थे। जबलपुर में रहने का नुकसान हुआ यह।

और बाकी बातें बाद में। फ़िलहाल मुझको ज्ञान चतुर्वेदी जी की कही बात याद आ गई। उन्होंने कहा था -हमको जो हैं उससे बेहतर होना है। बेहतर पिता, बेहतर पति, बेहतर लेखक और बेहतर .........होना है। बाकी सब बेहतरी थोडा मुश्किल है सो मैं एक बेहतर पाठक बनने की कोशिश करते हुए उनके लेख आदत के कुछ उद्धरण आपको पढ़वाता हूँ:

1. आदत और आदमी का चोली दामन का साथ है।
2. आदत हो जाए तो बिना सिगरेट या चाय के प्रेशर नहीं बनता, बिना प्रवचन सुने काली कमाई हजम नहीँ होती।
3. आदत पड़ जाए तो हर सांस लेता हुआ आदमी खुद को जिन्दा समझता रहता है।
4. आदत चिंतन का परिवार नियोजनी करण कर देती है।
5. बहुत सी भारतीय पत्नियां पतियों की क्रूरता को आदत के खाते में डालकर मुस्कराती रहती हैं कि अरे इनकी तो आदत है,अब कहां तक सोचूं।
6. आदत भ्रमों और गलतफहमियों की अम्मा है।
7. गुलामी की आदत पड़ जाए तो आजादी मिलने पर समझ नहीं आता कि इसका क्या करें। अमेरिका के हाथ बेंच दें या नए पूँजीवाद के यहां गिरवी रख दें।
7. आदत के कारखाने में उमंगे ऊब की शक्ल में मिलती हैं।
8. विवाह के कुछ वर्षों बाद एक -दूसरे की आदत ही पति-पत्नी में नीरसता पैदा करती है।
9.स्वभाव के सिंह द्वार पर आदत का ताला पड़ जाए तो नवीन प्रयोगों, विस्मयों का प्रवेश वर्जित हो जाता है।
10.आदत अप्रत्याशितों का विलोम है।
11.आदत से स्तुति तोता रटन्त में ढल जाती है।
12.आदतें अनादि-अनन्त हैं। आदतें ईश्वर हैं या ईश्वर भी एक आदत है।

अभी हाल में जिसको पढ़ना शुरू किया उसके मूल्यांकन के बारे में कुछ कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन ऐसे ही एक बार बातचीत में सुशील सिद्धार्थ के बारे में अपनी राय बताते हुए Nirmal Gupta ने कहा- इस आदमी को अपनी प्रतिभा और लेखन के मुकाबले प्रसिद्धि और सम्मान बहुत कम मिला। मतलब लेखन/प्रतिभा और उपलब्धि का वज्रगुणन हो गया। गाड़ी उलार हो गयी। एक लिहाज से यह हिंदी साहित्य की परम्परा के अनुरूप ही है। लेखक को उनके लेखन के हिसाब से समय रहते सम्मान मिल जाता है तो फिर वह उतना महान नहीं माना जाता।

यह जो लिखा वह बस ऐसे ही। यह न 'नारद की चिंता' की समीक्षा है न ही सुशील सिद्धार्थ का मूल्यांकन।जो कुछ उनके बारे जाना, पढ़ा उसका बस ऐसे ही घालमेल है।

सुशील जी को उनके सक्रिय लेखन और उसके लिए अच्छे स्वास्थ्य के लिए मंगलकामनाएं।

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Tuesday, August 18, 2015

गांधीवाद की आड़ में बंदरबाट

वलेस पर सबेरे उठते ही नमस्कारी-नमस्कारा के बाद किसी का छपा कोई लेख सामने कर दिया जाता है और कहा जाता है इसकी आलोचना करो। आलोचना में सबसे पहले काम यह तय करने का होता है कि लेख व्यंग्य लेख है कि नहीं। ऐसा तो नहीं कि कहीं मिलावट के जमाने में कोई व्यंग्य के नाम पर हास्य टिका जाये। या फ़िर हास्य और व्यंग्य के नाम कोई ललित निबन्ध ठेल दे। व्यंग्य होता है तब आगे बातें होती हैं वर्ना ......।

अब सवाल यह कि व्यंग्य होता क्या है भाई। व्यंग्यकारे-व्यंग्यकारे व्यंग्य: भिन्ना की तर्ज पर लोग व्यंग्य को अलग-अलग तरह से परिभाषित करते हैं। जहां परसाई जी व्यंग्य को मूल में करुणा बताते हुये कहते हैं -

व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है,जीवन की आलोचना करता है,विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का परदाफाश करता है।

वहीं श्रीलाल शुक्ल जी अपने पहले व्यंग्य लेख में जिस तरह की पैरोडी करते बात कहते हैं उससे तो मुझे पक्का भरोसा है कि अगर वलेस में श्रीलाल जी का यह लेख डाल दिया दिया तो पक्का  ’व्यंग्यकार बिरादरी’ इसको ’व्यंग्य -बदर’   कर देगी। श्रीलाल शुक्ल जी ने अपने व्यंग्य लेखन के शुरुआत के ऐतिहासिक क्षण में यह पैरोडी नुमा चीज लिखी थी:

” हम बिना बाथरूम के मर जायेंगे।
नाम दुनिया में अपना कर जायेंगे।

यह न पूछो कि मरकर किधर जायेंगे,
होगा पानी जिधर, बस उधर जायेंगे।
जून में हम नहाकर थे घर से चले,
अब नहायेंगे फ़िर जब कि घर जायेंगे।
यह हमारा वतन भी अरब हो गया,
आज हम भी खलीफ़ा के घर जायेंगे।

बहरहाल अब यह तो बाद में तय किया जायेगा कि व्यंग्य क्या होता है। पहले आज छपे कुछ व्यंग्य लेखों का वो फ़र्मा लिया जाये जिसे पढे-लिखे लोग मुलाहिजा कहते हैं।

सबसे पहले संतोष त्रिवेदी का व्यंग्य पेश हुआ। नवभारत टाइम्स में छपे  व्यंग्य लेख मे प्रधानमंत्री द्वारा  स्मार्ट मोबाइल फ़ोन के उपयोग के मजे लेते हुये ’हर हाथ मोबाइल, हर हाथ मोदी’ से शुरु करते हुये सरकार की कई योजनाओं पर अपनी बात जिस तरह कही है उससे एक बारगी लगा कि नेता विरोधी दल सरकार के खिलाफ़ बयान जारी कर रहा है। जैसे कोई अपने पडोसी को गरियाना बन्द करते हुये चुप होता है और अचानक फ़िर कोई बात याद आ जाती है तो वह फ़िर शुरु हो जाता है उसी अंदाज में फ़िर से शुरु हो गये सरकार के खिलाफ़ कम प्रधानमंत्री जी के खिलाफ़ खासकर। भौत खफ़ा है बैसबारी मोदी जी से।

जनता को स्मार्ट तकनीक और लटके झटके से झांसे देने की बातों का वर्णन कर लेने के बाद व्यंग्यकार जनता का नुमाइंदा बनकर चेतावनी देकर अपनी बात खतम करता है:

"वह समय भी अब जल्द आने वाला है जब किसी नेता को वोट मांगने के लिये जाने की जरूरत नहीं होगी। वह सीधे एप से ही उसका वोट डाउनलोड कर लेगा। इससे उसका और साथ में जनता का भी समय बचेगा,वोट भी खराब नहीं होगी।  हां मजदूरी सीधा उसके खाते में पहुंचेगी। वह दिन ऐतिहासिक होगा।"
इस लेख को पढते हुये लगा कि इसमें प्रधानमंत्री जी से संबंधित बातों को मिलाकर उनकी एसेंबली कर दी गयी है। इस ’असेंबली व्यंग्य’  का अंत कुछ समझ में नहीं आया। और तो और वोट का लिंग तक बदलकर धर दिया अखबार में। पता नहीं व्यंग्यकार ने ऐसा किया या फ़िर प्रूफ़रीडर ने।

अगला लेख Sharad Upadhyay का आया वलेस पर। नई दुनिया में छपे इस व्यंग्य में  बिहार में होने वाले आगामी चुनाव में राजनीतिक दलों की अदाओं पर निगाह डाली गयी है। शरद लिखते हैं:
 तुम ‘महागठबंधन प्यार’ को समझो। महागठबंधन प्यार की महत्ता को समझो। यह ठीक है, कि बरसों से हमारे बीच में दुश्मनी रही, हमने एक-दूसरे को बहुत नीचे दिखाया, तुमने भी मेरी कितनी इंसल्ट की. पर जीवन तो इससे बहुत आगे हैं। अपार संभावनाऐं हैं, आज कितने बरसों बाद सत्ता की भावना ने हमारे जीवन में प्यार के फूल खिला दिए है। आज तुम मुझे दिल रूपी मुख्यमंत्री की कुर्सी न्यौछावर कर दो, कुर्सी के लिए तुम आज नफरत की दीवारें तोड़ दो, वो कल से तुम्हारी भी तो हो सकती है। भई आज हमारे दिन हैं, तो कल से तुम्हारे भी दिन हो सकते हैं, हम अपने सपनों के संसार में बारी-बारी से कुर्सी पर प्यार के पींगे बढ़ाएंगे। तुम्हारी स्वीकृति हमारे जीवन में सत्ता का प्रकाश बिखरेगी।
 लेख पढने के बाद परसाईजी का लेख ’हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं’ याद आ गया। खोलकर पढा तो उसमें चुनाव लड़ने वाले दल का घोषणापत्र इस तरह दिया है:
  
हम जिस सरकार में नहीं होंगे , उस सरकार को गिरा देंगे। अगर हमारा बहुमत नहीं हुआ , तो हम हर महीने जनता को नई सरकार का मजा देंगे।
 शरद ने लेख फ़ेसबुक पर साझा किया लेख उसमें पैरा नहीं थे। पूरा लेख एक ही पैरा में सिमटा लगा। लेकिन संतोष त्रिवेदी से तो बढिया रहा जिन्होंने लेख का केवल फ़ोटू सटा दिया।

मृदुल कश्यप का लेख ’राष्ट्रीय सहारा’ में छपा। ’चलते-चलते’ स्तंभ में  ’खिलाडियों के खिलाड़ी’ शीर्षक से।

लेख को आप सीधे ही बांच लीजिये। बकिया हिस्सा पढने के लिये यहां क्लिकियाइये

पहली बार पढा मैंने मृदुल कश्यप जी को लेकिन अब फ़िर से पढने का मन भी करेगा। लिखना प्रवाह पूर्ण और पठनीय। समसामयिक घटनाओं की चर्चा करते हुये लिखते हैं:

"ललित कला के विशेषज्ञ इस सीमा से परे होते हैं। इन दमदार (जरूरत तो नहीं लगती दमदार की :) ) खिलाडियों के लिये यह कतई जरूरी नहीं कि वह (वे होता तो ज्यादा जमता) बाकायदा पैरों में पैड बांधकर ही मैदान में उतरे। वे मैदान के बाहर से भी अपना खेल बखूबी खेल सकते हैं। वे इतने सिद्धहस्त होते हैं कि सात समंदर पार लंदन में बैठे-बैठे ही चौके-छक्के उड़ा सकते हैं। वे सोसल मीडिया के जरिये शतक जड़ सकते हैं।"

बढिया ’ललिय व्यंग्य निबंध’ लिखा मृदुल जी ने।

डा. सुरेश कांत जी ने अपने दैनिक व्यंग्य कालम ’अर्धसत्य’ में बंदरों पर फ़िल्म बनाई और लिखा:


"तीसरे बंदर ने स्पष्ट किया -सत्ता गांधीवादी बंदरों की कॉमन प्रेमिका है। पहले बंदर ने उत्साहित होते हुये कहा-सत्ता के लिये गांधी बाबा की जड़ें खोदते और देश को मटियामेट करते दिखाये जाते हम जनता को बहुत पसंद आयेंगे। दूसरा बंदर भी जोश में भरकर (आकर ? ) बोला- दूसरी फ़िल्मों में जैसे असलियत की आड़ में स्टंटबाजी  दिखाई जाती है, इस फ़िल्म में स्टंटबाजी की आड़ में असलियत दिखाई जा सकेगी। तीसरे बंदर ने मायूसी के साथ कहा-वैसे भी आजकल  लोग जिसे गांधीवाद कहते हैं, वह असल में गांधीवाद की आड़ में बंदरबाद होता है जिसे ठेठ भाषा में बंदरबांट कहते हैं।"

कसे हुये इस बेहतरीन व्यंग्यलेख में प्रेमिका ’कॉमन’ की जगह साझा होती तो शायद और खूबसूरत लगती। :)

राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय पन्ने पर आलोक पुराणिक का व्यंग्य लेख छपा ’अंत में सेल और पहले भी’। आलोक पुराणिक लिखते हैं:

"सेल ने विकट खेल कर दिया है। स्वतंत्रता दिवस की शुरुआत सेल से हो, और अंत भी सेल से हो। हो सकता है कि कुछ समय बाद सेल-शास्त्री हमें आजादी का नया मतलब यह समझाने लगें कि सेल का मतलब है, आजादी, अपने हर पुराने आइटम से छुट्टी लें, आजादी का इस्तेमाल करें और हर आइटम ही नया खरीद लायें। आजादी माने खरीदने की आजादी। अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं-इस ऐतिहासिक गीत का मतलब यह है कि खरीदने की आजादी सबसे बड़ी आजादी है। इसे हम हमेशा कायम रखेंगे, कभी भी मिटने ना देंगे। हर सेल से सारे आइटम खरीदने की आजादी ही असली आजादी है। इसे हम मिटा नहीं सकते।

मेरा यह दुस्वप्न कुछ समय बाद कहीं सचाई में तब्दील ना हो जाये कि रेडियो पर मेरा रंग दे बसंती चोला-जैसे देशभक्ति के गीत के साथ फौरन यह इश्तिहार आने लग जाये-बसंती समेत हर कलर के चोले के लिए, सूट के लिए, विजिट करें डब्लू, डब्लू, डब्लू.........फायदा उठायें स्वतंत्रता दिवस की सेल का। "
अपने लेख ’अकाल उत्सव’ में परसाई जी भी सपने के बाद त्रिजटा से कहलाते हैं-
यह सपना मैं कहौं पुकारी
हुइहै सत्य गये दिन चारी।
आलोक पुराणिक को तो किसी से कहलाने की जरूरत भी न है। उनका सपना जल्द ही इंशाअल्ला पूरा होने के आसार नजर आते दीख रहे हैं। 

निर्मल गुप्त का लेख -"अतृप्त कुंठाओं पर प्रतिबंध लगे तो बात बने’ आज हरिभूमि में छपा। ब्लॉग पर 13 दिन पहले लिख लिये थे निर्मल जी इसे। देखिये क्या कहते हैं इसमें:

-तब तुम रात दिन ऑनलाइन रह कर करते क्या हो? मुझे उसके इस प्रश्न में छुपा जासूस दिखा। मैं समझ गया कि इसके हाथ में जो उपकरण है वह माइक या सिरिंज नहीं ,डॉक्टरी स्टेथोस्कोप है,बीमारी परखने के लिए?
-वही करता हूँ जो काम पूरे मुल्क के चमगादड़ और बौद्धिक करते हैं। मैंने लम्बी सांस फेफड़ों में भर कर अपनी बौद्धिकता की भनक दी।
-चमगादड़ तो उलटे लटकते हैं। आप क्या करते हैं? उसने जिरह की।
-हम भी अन्य बुद्धिजीवियों की तरह कम्प्यूटर से उलटे लटक कर चिंतन करते हैं। उलटे लटकने से सोच प्रगाढ़ होती है। मैंने जानकारी दी।
इतना सुनते ही वह समझ गई कि वह गलत जगह पर आ गई है। उसने पुरजोर आवाज में कहा- लैट्स गो ।  उसने यह निर्देश कुछ इस तरह से दिया जैसे कमांडर अपनी पैदल सेना कदमताल का निर्देश देता है। वे अपने उपकरण सँभालते हुए चल दिए।  
-कहाँ ? मैंने सहमते हुए पूछा।
-कहीं नहीं।  तुम यहीं बैठो। जब पॉर्न मिल जाये तो बताना। उसने कड़क कर कहा।
- जी ….. मैंने कहा।  उसकी बात मैं समझ नहीं पाया । हालाँकि तब मैं कहना तो ‘हम्म’ चाह रहा था लेकिन हडबडाहट में मुहँ से सिर्फ ‘जी’ निकल पाया।  नाज़ुक मौकों पर अकसर मैं ऐसे ही चूक कर बैठता हूँ।

अब आखिर में होता क्या है यह भी देखते चलिये:
वह चली गई।  तभी व्हाट्स एप पर खबर आई।  पोर्नोग्राफी से बैन हटा।  
अब चैन ही चैन है।  अब मैं बेख़ौफ़ कह सकता हूँ कि मेरे कम्प्यूटर में तो जाने क्या क्या अगडम सगड़म रहता है,उसे तो जब चाहो ब्लॉक कर दो ,लेकिन हमारी स्मृति में तो  यकीनन अतृप्त लालसाओं और कुंठाओं का स्थाई वास है।उस पर कोई प्रतिबंध लगे तो बात बने !

व्यंग्यकारों के मजे हैं। एक लेख प्रतिबंध लगने पर। एक हटने पर।

आज के लिये बस इतना ही। बाकी फ़िर कभी। यह चर्चा करने में तीन घंटे लगे। मतलब रोज तो न हो पायेगा यह काम । लिंक खोजना फ़िर उसका फ़ोटो सटाना। व्यंग्यकार लोग इतने व्यस्त रहते हैं कि केवल फ़ोटो सटा देते हैं। फ़िर व्हाट्सएप का कम्प्यूटर से संबंध नहीं। बड़ा लफ़ड़ा है।

खैर बताइये कैसा लगी यह वयंग्य चर्चा।

मेरी पसंद 


 सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे औरसाल भर में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया.

जब कागज आ गया,तो उसकी फाइलें बना दी गयीं.प्रधानमंत्रीके सचिवालय से फाइल खाद्य-विभाग को भेजी गयी.खाद्य-विभाग ने उस पर लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और उसे अर्थ-विभाग को भेज दिया.

अर्थ-विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किये गये और उसे कृषि-विभाग को भेज दिया गया.

बिजली-विभाग ने उसमें बिजली लगाई और उसे सिंचाई-विभाग को भेज दिया गया.सिंचाई विभाग में फाइल पर पानी डाला गया.

अब वह फाइल गृह-विभाग को भेज दी गयी.गृह विभाग नेउसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइलराजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जायी गयी.हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता.

जब फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूडकारपोरेशन के दफ्तर में भेज दिया गया और उस पर लिख दियागया कि इसकी फसल काट ली जाये.इस तरह दस लाख एकड़ कागज की फाइलों की फसल पक कर फूड कार्पोरेशन के के पास पहुंच गयी.

एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा-’हुजूर,हम किसानों को आप जमीन,पानी और बीज दिला दीजिये औरअपने अफसरों से हमारी रक्षा कर लीजिये,तो हम देश के लिये पूरा अनाज पैदा कर देंगे.’

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया-’अन्न की पैदावार के लिये किसान की अब कोई जरूरत नहीं है.हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं.’

कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया-’इस साल तो सम्भव नहीं हो सका ,पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.’

और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का आर्डर और दे दिया गया.

——हरिशंकर परसाई

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Monday, August 17, 2015

सड़क पर व्यंग्य की बतकही

वलेस मने कि व्यंग्य लेखक समिति की शुरुआत व्यंग्य से संबंधित चर्चा के लिये हुई। व्हाट्सएप मने कि क्या है यार यह अनुप्रयोग पर सुशील सिद्धार्थ द्वारा। इसमें हिन्दी साहित्य के लगभग सभी सक्रिय रचनाकार सम्मिलित हैं। व्यंग्य पर नियमित चर्चा होती है।  यह व्यंग्य है या नहीं के एसिड टेस्ट से शुरुआत होकर फ़िर अमिधा, लक्षणा  और व्यंजना की कसौटियों पर कसते हुये व्यंग्य का इम्तहान होता है। पास-फ़ेल की बात तो अलग लेकिन नियमित तौर पर एक-दो या अधिक भी व्यंग्य पर चर्चा होती है।

एक सुझाव कल दिया गया कि व्यंग्यकार अपना-अपना ब्लॉग भी बनायें। उसमें वे अपने व्यंग्य लेख पोस्ट करें ताकि अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें। यह विचार इसलिये कि फ़ेसबुक और व्हाट्सएप जहां पर व्यंग्यकार अपने छपे हुये लेख साझा करते हैं वे बंद समूह हैं। जिन अखबारों में व्यंग्य छपते हैं वे अगले दिन या अधिक से अधिक अगले हफ़्ते/महीने नेट पर दिखते नहीं। इसलिये बढिया रहे कि सब लोग अपने लेख अपने ब्लॉग पर भी पोस्ट करें। इस क्रम में सुशील सिद्धार्थ का और सुभाष चन्दर जी का ब्लॉग बनाया जाना तय हुआ। सुशील जी का  ब्लॉग तो बन गया लेकिन सुभाष चन्दर जी के ब्लॉग में गड़बड़झाला यह हुआ कि उनका पहले से ही गड़बड़झाला नाम से ब्लॉग था। अब शायद वे पोस्ट करना शुरु करें।


आज प्रमोद ताम्बट का व्यंग्य छपा नई दुनिया में- सड़क हैं तो गढ्ढे हैं। इसमें सड़क पर गढ्ढे की शाश्वत समस्या पर चिन्तन हुआ। इसमें सड़कों पर की दुर्दशा और कीचड़ और गन्दगी से लबरेज गढ्ढों के निर्माताओं, इंजीनियरों और ठेकेदारों की इज्जत करने का आह्वान किया गया है। यह भी कि इनको राष्ट्रीय प्रतिभा मानते हुये इनके समुचित सम्मान की व्यवस्था की जाये।

यह व्यंग्य अखबार में ही है। उनके ब्लॉग में अब तक आया नहीं। इसलिये जिसको पूरा व्यंग्य पढ़ना हो वो यहां पहुंचे।

 ’पीने पाले को पीने का बहाना चाहिये’ की तर्ज पर लिखने वाले को पढ़वाने का बहाना चाहिये। मौके का फ़ायदा उठाते हुये सुशील सिद्धार्थ जी ने अपना 'एक सड़क छाप चिन्तन' ’वलेस’ पर ठेल दिया। कुछ  लेख अच्छा होने  और बाकी वलेस के एडमिन होने के चलते लोगों ने लेख की जमकर तारीफ़ की। लेख का एक अंश आप भी देखें जरा:

’ सड़क तुम धन्य हो। तुमने ने जाने कितने नेताओं के शक्ति परीक्षण का सुख भोगा है। तुम्हारे चौराहों पर, मोडों पर ही पुलिस द्वारा धनवसूली का पावन दृश्य दिखता है। सड़क ! जब कर्फ़्यू में बूटों और लाठियों की ठक-ठक के अलावा सारी आवाजें दफ़्न हो जाती हैं तब तुम्हें तकलीफ़ तो नहीं होती। जब स्कूल जाते बच्चों को रौंदकर कोई तेज वाहन बेखटके भाग जाता है तब तुम्हारा दिल तो नहीं दहलता! तुम्हें चुस्त-दुरुस्त करने के नाम पर जब करोडों रुपये डकारने की भारतीय संस्कृति फ़लती-फ़ूलती  है तब तुम्हारी आत्मा में वेदमंत्र तो नहीं गूंजते। तुम्हारे किनारे बिजनेस की जगह ताड़कर जब कोई धर्मस्थान रातों रात प्रकट होता है तब तुम्हें पाकिस्तान की साजिश तो नहीं नजर आती। सड़क तुम सच्चे अर्थों में लोकतंत्र की गति का नमूना हो।’

यह लेख जो कि पन्द्रह साल पहले राष्ट्रीय सहारा में छपा था सुशील सिद्धार्थ के व्यंग्य संग्रह ’नारद की चिंता’  में संकलित है। यह संग्रह आन लाइन यहां पर उपलब्ध है। आप चाहें तो यहां से मंगाकर बाकी लेखों का भी आनन्द उठा सकते हैं। हमने जब मंगाई थी तब 271 पेज के 395 रुपये ठुके अब यह 296 की है। लगता है गलती तो नहीं की जल्दी मंगाकर। लेकिन यह सोचिये पहले न मंगाये तो आपको बताते कैसे इसके बारे में।

जब सड़क चिन्तन होने लगा तो कमलेश पाण्डेय जी ने सड़क निर्माण की प्रक्रिया बताई:

पन्द्रह मील लंबी एक सड़क बनानी हो, तो निर्माण प्रक्रिया के में निम्न लिखित चरण होते हैं:
1. एक छोर से निर्माण का प्रारम्भ
2. मध्य भाग तक सड़क तैयार और आरम्भिक छोर से मरम्मत कार्य का आरम्भ
3. सड़क पूरी तैयार, मरम्मत का कार्य मध्य भाग तक पहुंचना
4. मरम्मत कार्य का अंतिम छोर तक पहुंचना एवं आरम्भिक छोर से पुनर्मरम्मत का प्रारम्भ।
5. अंतिम चरण तक क्रिया अनंतकाल तक चलती है
 जहां भी कहीं किसी को सड़क पर गढ्ढा या गढ्ढे में सड़क दिखे समझा जाये कि वह सड़क कमलेश जी के फ़ार्मूले के हिसाब से बनी है। अभिषेक अवस्थी ने तो सवाल भी किया- कमलेश सर क्या आप PWD में थे?
पता चला कि यह लेख 22 वर्ष पहले धर्मयुग में छपा था। गनीमत रही कि किसी ने 25 साल पहले का लेख नहीं ठेला।

आलोक पुराणिक को एहसास है कि स्विस बैंक में रखी हुई चीजें सुरक्षित रहती हैं। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लगता है देश को लेकर कुछ ज्यादा ही भावुक हो गये और ’मुल्क को ही स्विस लाकर’  में रख आये। वे फ़रमाते हैं:

"वतन की राह में कौन सा नौजवान शहीद हो रहा है-सारे काबिल नौजवान अमेरिकन एंबेसी के बाहर अमेरिकन वीजा के लिए लगी लाइन में लगे हैं। हम इत्ते भर में खुश हो ले रहे हैं कि कोई भारतीय नौजवान अमेरिका की गूगल कंपनी की चीफ हो लिया या कोई भारतीय नौजवान अमेरिका की माइक्रोसाफ्ट कंपनी का चीफ हो लिया।

अमेरिका जाने की लाइन में लगे नौजवानों की तादाद बहुत ज्यादा है। जिन नौजवानों की नौकरी पुलिस या सेना में नहीं है, उनसे वतन पर शहादत की बात करो, तो जवाब मिलेगा कि शहादत का मतलब क्या होता है, समझ नहीं आया। आप इत्ती कड़ी उर्दू क्यों बोलते हैं, लीजिये पिज्जा खाइये और अमेरिकन एंबेसी के सामने वीजा की लाइन में लगिये।"
यहां परसाई जी की कहा याद आ गया- जब लोग देश का प्रापर चैनल नहीं पार कर पाते तो इंगलिश चैनल पार कर जाते हैं। प्रापर चैनल इंगलिश चैनल से ज्यादा चौड़ा है।

कुछ एक लाईना:
1. आतंकी धमाके में पाक-पंजाब के गृहमंत्री की मौत के बाद पाक-नेताओं ने बजरंगी भाईजान से कहा, इंडिया से लाकर पाक में छोड़ने का काम तुम कर चुके हो, अब इसका बदला चाहिए, अब हमें पाक से ले जाकर इंडिया में छोड़ो।- आलोक पुराणिक

2. UAE में मंदिर बनने की खबर सुनते ही आसाराम और राधे मां ने, वहां सत्संग के वास्ते, अपनी-अपनी अर्जियां मोदीजी को भिजवा दी हैं।- अंशु माली रस्तोगी

3.  पिछली सरकारें अरबों से इसलिए सम्बन्ध नहीं सुधार पाईं क्योंकि वो खरबों बनाने में लगी थी।- नीरज  बधबार

4.यदि किसी व्यंग्य लेख को पढते हुए होठ एक तिर्यक मुस्कान से खिंच न जायं तो समझिए वह व्यर्थ ही लिखा गया है.- डा. अरविन्द मिश्र
  पढते-पढते थक गये हों तो सुनिये सुशील सिद्धार्थ का व्यंग्य पाठयहां क्लिकियायें और भोपाल पहुंच जायें जहां कि सुशील जी अपना व्यंग्य पाठ करते हुये सुनाई और दिखाई दे रहे हैं। कहते हुये-  थक जाऊंगा तो पूंजीवाद की बारात में शहनाई कौन बजायेगा?


श्रद्धांजलि: पिछले दिनों वरिष्ठ व्यंग्यकार यज्ञ शर्मा जी कैंसर की बीमारी से जूझते हुये  निधन हो गया। ’मुंबइया भाषा में दुनिया की बात’ करने वाले यज्ञ शर्मा जी ’खाली-पीली’ स्तम्भ लिखते थे।  प्रख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी जी ने उनके साथ अपने संबंधों को याद करते हुये लिखा:


 यज्ञ शर्मा जी को विनम्र श्रद्धांजलि।

मेरी पसंद: 
भ्रष्टाचार- बलात्कार- समाचार। रोज भ्रष्टाचार, रोज समाचार। रोज बलात्कार, रोज समाचार। खबरिया चैनल भर गएला है भ्रष्टाचार और बलात्कार से। ऐसा खबर सुन कर, क्या आपको नहीं लगता कि भ्रष्टाचार रोज हमारा थोबड़ा पर जूता मारता है। और, बलात्कार रोज हमारा इज्जत लूटता है। सुबह-दोपहर-शाम, जबी देखो बस ये ईच समाचार, भ्रष्टाचार- बलात्कार! मन तरस गया कोई अच्छा खबर सुनने को। लगता है देश में कुछ अच्छा बचा ईच नहीं है। जबसे दिल्ली में एक लड़की पर वो बलात्कार हुआ और जनता ने हंगामा किया, उसका बाद तो दिल्ली का बलात्कारी लोग जैसे बदला लेने पर उतर आया है। बार-बार बलात्कार हो रहेला है। किशोर, जवान, अधेड़ जो बी मिल जावे, वो औरत शिकार हो जाता है। बदमाश लोग ने चार-पांच साल का बच्ची तक को नहीं छोड़ा। दूसरा बाजू, भ्रष्टाचारी लोग ने टू-जी, हेलिकॉप्टर, कोयला कुछ बी नहीं छोड़ा। कोयला का घोटाला हुआ तो क्या किसी का मुंह काला हुआ? जी नहीं, सब डिटरजेंट से धुला नजर आ रहा है। अगर मुंह काला हुआ है, तो देश का हुआ है। भोत साल से देश का मुंह लगातार काला हो रहा है। अब तो देश मुंह साफ करने में बी घबराता है। कहीं मुंह पोंछा और किसी ने चेहरा नहीं पहचाना तो? उसका पास तो मुंह छिपाने को कोई जगह बी नहीं है। आपने कबी सोचा है, देश का पास अक्खा देश है, लेकिन ऐसा घर नहीं है, जिधर वो अपना मुंह छिपा सके।

जब से खबरिया चैनल चौबीस घंटा का हुआ है, एक ईच समाचार दिन में चौबीस बार देखना पड़ता है। बार-बार ऐसा समाचार देखना पड़ता है। बार-बार उसका बारे में विस्तार से जानकारी दिया जाता है। बार-बार सुन कर मन खराब होता है। पर, बेचारा चैनल वाला बी क्या करे? देश का पास कोई और समाचार ईच नहीं है। है तो बस वो ईच - भ्रष्टाचार या बलात्कार।

दिल बेचैन है कोई अच्छा खबर सुनने का वास्ते। मैंने एक खबरिया चैनल को बोला, 'कबी-कबी तो कोई अच्छा खबर सुना दिया करो।' चैनल बोला, 'तुम अच्छा खबर बता दो, हम सुना देंगा।' तब से मैं लगातार सोच रहा है, ये देश में कोई अच्छा खबर क्या हो सकता है ? अंग्रेजी में एक कहावत है 'नो न्यूज इज गुड न्यूज' - 'अगर कोई खबर नहीं है, तो ये अच्छा खबर है'। अगर, आप बीबीसी या सीएनएन देखता है, तो आपने देखा होएंगा कि उसको देख कर मन इतना खराब नहीं होता। वो लोग का पास अच्छा समाचार बी होता है। मेरे को लगता है अंग्रेजी का वो कहावत हिंदुस्तान का बारे में बनाया गया होएंगा।

क्या मन खराब करने वाला खबर देखना हमारा किस्मत में लिखा है? आखिर, कुछ तो ऐसा होवे जो हमारा मन बहलावे। अचानक मन में एक खयाल आया - काश कोई हीरोइन गर्भवती हो जावे। बड़ा हीरोइन का गर्भवती होना बी बड़ा समाचार होता है। सिरफ बड़ा ईच नहीं, सुंदर समाचार बी होता है। टीवी में हीरोइन का खूबसूरत, मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखेंगा। चेहरा पर एक अनोखा चमक होएंगा, मेक-अप का चमक नहीं, कुदरत का एक चमत्कार से पैदा होने वाला चमक।

आप सोचता होएंगा, हीरोइन का गर्भवती होने का समाचार ईच कायकू ? कारण, वो अकेला समाचार है जो नौ महीना तक पुराना नहीं होएंगा। फिर जब बच्चा पैदा होएंगा, तो वो और बी बड़ा समाचार होएंगा। एक मासूम-सा चेहरा टीवी स्क्रीन पर दिखाई देंगा। बच्चा अंगूठा बी चूसेंगा। अच्छा है, अंगूठा चूसेंगा। भ्रष्टाचार का माफिक देश का खून तो नहीं चूसेंगा। छोटा बच्चा देख कर सबका मन खुश हो जाता है। ये जितना भ्रष्टाचारी है, ये जबी बच्चा था, तो इनको देख कर बी लोग खुश होता होएंगा। जो लोग खुश होता था, क्या वो लोग को पता था कि ये बच्चा बड़ा हो कर क्या गुल खिलाएंगा? पता होता तो क्या वो लोग खुश होता? भ्रष्टाचारी लोग को बी ये बारे में सोचना चाहिए। कहा जाता है - बचपन में जिंदगी का सबसे जास्ती सुख मिलता है। भ्रष्टाचारी शायद ऐसा नहीं सोचता - वो लोग को सबसे जास्ती सुख भ्रष्टाचार में मिलता है। 


स्व. यज्ञ शर्मा

आज के लिये इतना ही। बाकी फ़िर कभी।

बताइये व्यंग्य चर्चा कैसी लगी?

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