Tuesday, August 18, 2015

गांधीवाद की आड़ में बंदरबाट

वलेस पर सबेरे उठते ही नमस्कारी-नमस्कारा के बाद किसी का छपा कोई लेख सामने कर दिया जाता है और कहा जाता है इसकी आलोचना करो। आलोचना में सबसे पहले काम यह तय करने का होता है कि लेख व्यंग्य लेख है कि नहीं। ऐसा तो नहीं कि कहीं मिलावट के जमाने में कोई व्यंग्य के नाम पर हास्य टिका जाये। या फ़िर हास्य और व्यंग्य के नाम कोई ललित निबन्ध ठेल दे। व्यंग्य होता है तब आगे बातें होती हैं वर्ना ......।

अब सवाल यह कि व्यंग्य होता क्या है भाई। व्यंग्यकारे-व्यंग्यकारे व्यंग्य: भिन्ना की तर्ज पर लोग व्यंग्य को अलग-अलग तरह से परिभाषित करते हैं। जहां परसाई जी व्यंग्य को मूल में करुणा बताते हुये कहते हैं -

व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है,जीवन की आलोचना करता है,विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का परदाफाश करता है।

वहीं श्रीलाल शुक्ल जी अपने पहले व्यंग्य लेख में जिस तरह की पैरोडी करते बात कहते हैं उससे तो मुझे पक्का भरोसा है कि अगर वलेस में श्रीलाल जी का यह लेख डाल दिया दिया तो पक्का  ’व्यंग्यकार बिरादरी’ इसको ’व्यंग्य -बदर’   कर देगी। श्रीलाल शुक्ल जी ने अपने व्यंग्य लेखन के शुरुआत के ऐतिहासिक क्षण में यह पैरोडी नुमा चीज लिखी थी:

” हम बिना बाथरूम के मर जायेंगे।
नाम दुनिया में अपना कर जायेंगे।

यह न पूछो कि मरकर किधर जायेंगे,
होगा पानी जिधर, बस उधर जायेंगे।
जून में हम नहाकर थे घर से चले,
अब नहायेंगे फ़िर जब कि घर जायेंगे।
यह हमारा वतन भी अरब हो गया,
आज हम भी खलीफ़ा के घर जायेंगे।

बहरहाल अब यह तो बाद में तय किया जायेगा कि व्यंग्य क्या होता है। पहले आज छपे कुछ व्यंग्य लेखों का वो फ़र्मा लिया जाये जिसे पढे-लिखे लोग मुलाहिजा कहते हैं।

सबसे पहले संतोष त्रिवेदी का व्यंग्य पेश हुआ। नवभारत टाइम्स में छपे  व्यंग्य लेख मे प्रधानमंत्री द्वारा  स्मार्ट मोबाइल फ़ोन के उपयोग के मजे लेते हुये ’हर हाथ मोबाइल, हर हाथ मोदी’ से शुरु करते हुये सरकार की कई योजनाओं पर अपनी बात जिस तरह कही है उससे एक बारगी लगा कि नेता विरोधी दल सरकार के खिलाफ़ बयान जारी कर रहा है। जैसे कोई अपने पडोसी को गरियाना बन्द करते हुये चुप होता है और अचानक फ़िर कोई बात याद आ जाती है तो वह फ़िर शुरु हो जाता है उसी अंदाज में फ़िर से शुरु हो गये सरकार के खिलाफ़ कम प्रधानमंत्री जी के खिलाफ़ खासकर। भौत खफ़ा है बैसबारी मोदी जी से।

जनता को स्मार्ट तकनीक और लटके झटके से झांसे देने की बातों का वर्णन कर लेने के बाद व्यंग्यकार जनता का नुमाइंदा बनकर चेतावनी देकर अपनी बात खतम करता है:

"वह समय भी अब जल्द आने वाला है जब किसी नेता को वोट मांगने के लिये जाने की जरूरत नहीं होगी। वह सीधे एप से ही उसका वोट डाउनलोड कर लेगा। इससे उसका और साथ में जनता का भी समय बचेगा,वोट भी खराब नहीं होगी।  हां मजदूरी सीधा उसके खाते में पहुंचेगी। वह दिन ऐतिहासिक होगा।"
इस लेख को पढते हुये लगा कि इसमें प्रधानमंत्री जी से संबंधित बातों को मिलाकर उनकी एसेंबली कर दी गयी है। इस ’असेंबली व्यंग्य’  का अंत कुछ समझ में नहीं आया। और तो और वोट का लिंग तक बदलकर धर दिया अखबार में। पता नहीं व्यंग्यकार ने ऐसा किया या फ़िर प्रूफ़रीडर ने।

अगला लेख Sharad Upadhyay का आया वलेस पर। नई दुनिया में छपे इस व्यंग्य में  बिहार में होने वाले आगामी चुनाव में राजनीतिक दलों की अदाओं पर निगाह डाली गयी है। शरद लिखते हैं:
 तुम ‘महागठबंधन प्यार’ को समझो। महागठबंधन प्यार की महत्ता को समझो। यह ठीक है, कि बरसों से हमारे बीच में दुश्मनी रही, हमने एक-दूसरे को बहुत नीचे दिखाया, तुमने भी मेरी कितनी इंसल्ट की. पर जीवन तो इससे बहुत आगे हैं। अपार संभावनाऐं हैं, आज कितने बरसों बाद सत्ता की भावना ने हमारे जीवन में प्यार के फूल खिला दिए है। आज तुम मुझे दिल रूपी मुख्यमंत्री की कुर्सी न्यौछावर कर दो, कुर्सी के लिए तुम आज नफरत की दीवारें तोड़ दो, वो कल से तुम्हारी भी तो हो सकती है। भई आज हमारे दिन हैं, तो कल से तुम्हारे भी दिन हो सकते हैं, हम अपने सपनों के संसार में बारी-बारी से कुर्सी पर प्यार के पींगे बढ़ाएंगे। तुम्हारी स्वीकृति हमारे जीवन में सत्ता का प्रकाश बिखरेगी।
 लेख पढने के बाद परसाईजी का लेख ’हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं’ याद आ गया। खोलकर पढा तो उसमें चुनाव लड़ने वाले दल का घोषणापत्र इस तरह दिया है:
  
हम जिस सरकार में नहीं होंगे , उस सरकार को गिरा देंगे। अगर हमारा बहुमत नहीं हुआ , तो हम हर महीने जनता को नई सरकार का मजा देंगे।
 शरद ने लेख फ़ेसबुक पर साझा किया लेख उसमें पैरा नहीं थे। पूरा लेख एक ही पैरा में सिमटा लगा। लेकिन संतोष त्रिवेदी से तो बढिया रहा जिन्होंने लेख का केवल फ़ोटू सटा दिया।

मृदुल कश्यप का लेख ’राष्ट्रीय सहारा’ में छपा। ’चलते-चलते’ स्तंभ में  ’खिलाडियों के खिलाड़ी’ शीर्षक से।

लेख को आप सीधे ही बांच लीजिये। बकिया हिस्सा पढने के लिये यहां क्लिकियाइये

पहली बार पढा मैंने मृदुल कश्यप जी को लेकिन अब फ़िर से पढने का मन भी करेगा। लिखना प्रवाह पूर्ण और पठनीय। समसामयिक घटनाओं की चर्चा करते हुये लिखते हैं:

"ललित कला के विशेषज्ञ इस सीमा से परे होते हैं। इन दमदार (जरूरत तो नहीं लगती दमदार की :) ) खिलाडियों के लिये यह कतई जरूरी नहीं कि वह (वे होता तो ज्यादा जमता) बाकायदा पैरों में पैड बांधकर ही मैदान में उतरे। वे मैदान के बाहर से भी अपना खेल बखूबी खेल सकते हैं। वे इतने सिद्धहस्त होते हैं कि सात समंदर पार लंदन में बैठे-बैठे ही चौके-छक्के उड़ा सकते हैं। वे सोसल मीडिया के जरिये शतक जड़ सकते हैं।"

बढिया ’ललिय व्यंग्य निबंध’ लिखा मृदुल जी ने।

डा. सुरेश कांत जी ने अपने दैनिक व्यंग्य कालम ’अर्धसत्य’ में बंदरों पर फ़िल्म बनाई और लिखा:


"तीसरे बंदर ने स्पष्ट किया -सत्ता गांधीवादी बंदरों की कॉमन प्रेमिका है। पहले बंदर ने उत्साहित होते हुये कहा-सत्ता के लिये गांधी बाबा की जड़ें खोदते और देश को मटियामेट करते दिखाये जाते हम जनता को बहुत पसंद आयेंगे। दूसरा बंदर भी जोश में भरकर (आकर ? ) बोला- दूसरी फ़िल्मों में जैसे असलियत की आड़ में स्टंटबाजी  दिखाई जाती है, इस फ़िल्म में स्टंटबाजी की आड़ में असलियत दिखाई जा सकेगी। तीसरे बंदर ने मायूसी के साथ कहा-वैसे भी आजकल  लोग जिसे गांधीवाद कहते हैं, वह असल में गांधीवाद की आड़ में बंदरबाद होता है जिसे ठेठ भाषा में बंदरबांट कहते हैं।"

कसे हुये इस बेहतरीन व्यंग्यलेख में प्रेमिका ’कॉमन’ की जगह साझा होती तो शायद और खूबसूरत लगती। :)

राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय पन्ने पर आलोक पुराणिक का व्यंग्य लेख छपा ’अंत में सेल और पहले भी’। आलोक पुराणिक लिखते हैं:

"सेल ने विकट खेल कर दिया है। स्वतंत्रता दिवस की शुरुआत सेल से हो, और अंत भी सेल से हो। हो सकता है कि कुछ समय बाद सेल-शास्त्री हमें आजादी का नया मतलब यह समझाने लगें कि सेल का मतलब है, आजादी, अपने हर पुराने आइटम से छुट्टी लें, आजादी का इस्तेमाल करें और हर आइटम ही नया खरीद लायें। आजादी माने खरीदने की आजादी। अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं-इस ऐतिहासिक गीत का मतलब यह है कि खरीदने की आजादी सबसे बड़ी आजादी है। इसे हम हमेशा कायम रखेंगे, कभी भी मिटने ना देंगे। हर सेल से सारे आइटम खरीदने की आजादी ही असली आजादी है। इसे हम मिटा नहीं सकते।

मेरा यह दुस्वप्न कुछ समय बाद कहीं सचाई में तब्दील ना हो जाये कि रेडियो पर मेरा रंग दे बसंती चोला-जैसे देशभक्ति के गीत के साथ फौरन यह इश्तिहार आने लग जाये-बसंती समेत हर कलर के चोले के लिए, सूट के लिए, विजिट करें डब्लू, डब्लू, डब्लू.........फायदा उठायें स्वतंत्रता दिवस की सेल का। "
अपने लेख ’अकाल उत्सव’ में परसाई जी भी सपने के बाद त्रिजटा से कहलाते हैं-
यह सपना मैं कहौं पुकारी
हुइहै सत्य गये दिन चारी।
आलोक पुराणिक को तो किसी से कहलाने की जरूरत भी न है। उनका सपना जल्द ही इंशाअल्ला पूरा होने के आसार नजर आते दीख रहे हैं। 

निर्मल गुप्त का लेख -"अतृप्त कुंठाओं पर प्रतिबंध लगे तो बात बने’ आज हरिभूमि में छपा। ब्लॉग पर 13 दिन पहले लिख लिये थे निर्मल जी इसे। देखिये क्या कहते हैं इसमें:

-तब तुम रात दिन ऑनलाइन रह कर करते क्या हो? मुझे उसके इस प्रश्न में छुपा जासूस दिखा। मैं समझ गया कि इसके हाथ में जो उपकरण है वह माइक या सिरिंज नहीं ,डॉक्टरी स्टेथोस्कोप है,बीमारी परखने के लिए?
-वही करता हूँ जो काम पूरे मुल्क के चमगादड़ और बौद्धिक करते हैं। मैंने लम्बी सांस फेफड़ों में भर कर अपनी बौद्धिकता की भनक दी।
-चमगादड़ तो उलटे लटकते हैं। आप क्या करते हैं? उसने जिरह की।
-हम भी अन्य बुद्धिजीवियों की तरह कम्प्यूटर से उलटे लटक कर चिंतन करते हैं। उलटे लटकने से सोच प्रगाढ़ होती है। मैंने जानकारी दी।
इतना सुनते ही वह समझ गई कि वह गलत जगह पर आ गई है। उसने पुरजोर आवाज में कहा- लैट्स गो ।  उसने यह निर्देश कुछ इस तरह से दिया जैसे कमांडर अपनी पैदल सेना कदमताल का निर्देश देता है। वे अपने उपकरण सँभालते हुए चल दिए।  
-कहाँ ? मैंने सहमते हुए पूछा।
-कहीं नहीं।  तुम यहीं बैठो। जब पॉर्न मिल जाये तो बताना। उसने कड़क कर कहा।
- जी ….. मैंने कहा।  उसकी बात मैं समझ नहीं पाया । हालाँकि तब मैं कहना तो ‘हम्म’ चाह रहा था लेकिन हडबडाहट में मुहँ से सिर्फ ‘जी’ निकल पाया।  नाज़ुक मौकों पर अकसर मैं ऐसे ही चूक कर बैठता हूँ।

अब आखिर में होता क्या है यह भी देखते चलिये:
वह चली गई।  तभी व्हाट्स एप पर खबर आई।  पोर्नोग्राफी से बैन हटा।  
अब चैन ही चैन है।  अब मैं बेख़ौफ़ कह सकता हूँ कि मेरे कम्प्यूटर में तो जाने क्या क्या अगडम सगड़म रहता है,उसे तो जब चाहो ब्लॉक कर दो ,लेकिन हमारी स्मृति में तो  यकीनन अतृप्त लालसाओं और कुंठाओं का स्थाई वास है।उस पर कोई प्रतिबंध लगे तो बात बने !

व्यंग्यकारों के मजे हैं। एक लेख प्रतिबंध लगने पर। एक हटने पर।

आज के लिये बस इतना ही। बाकी फ़िर कभी। यह चर्चा करने में तीन घंटे लगे। मतलब रोज तो न हो पायेगा यह काम । लिंक खोजना फ़िर उसका फ़ोटो सटाना। व्यंग्यकार लोग इतने व्यस्त रहते हैं कि केवल फ़ोटो सटा देते हैं। फ़िर व्हाट्सएप का कम्प्यूटर से संबंध नहीं। बड़ा लफ़ड़ा है।

खैर बताइये कैसा लगी यह वयंग्य चर्चा।

मेरी पसंद 


 सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे औरसाल भर में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया.

जब कागज आ गया,तो उसकी फाइलें बना दी गयीं.प्रधानमंत्रीके सचिवालय से फाइल खाद्य-विभाग को भेजी गयी.खाद्य-विभाग ने उस पर लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और उसे अर्थ-विभाग को भेज दिया.

अर्थ-विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किये गये और उसे कृषि-विभाग को भेज दिया गया.

बिजली-विभाग ने उसमें बिजली लगाई और उसे सिंचाई-विभाग को भेज दिया गया.सिंचाई विभाग में फाइल पर पानी डाला गया.

अब वह फाइल गृह-विभाग को भेज दी गयी.गृह विभाग नेउसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइलराजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जायी गयी.हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता.

जब फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूडकारपोरेशन के दफ्तर में भेज दिया गया और उस पर लिख दियागया कि इसकी फसल काट ली जाये.इस तरह दस लाख एकड़ कागज की फाइलों की फसल पक कर फूड कार्पोरेशन के के पास पहुंच गयी.

एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा-’हुजूर,हम किसानों को आप जमीन,पानी और बीज दिला दीजिये औरअपने अफसरों से हमारी रक्षा कर लीजिये,तो हम देश के लिये पूरा अनाज पैदा कर देंगे.’

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया-’अन्न की पैदावार के लिये किसान की अब कोई जरूरत नहीं है.हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं.’

कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया-’इस साल तो सम्भव नहीं हो सका ,पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.’

और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का आर्डर और दे दिया गया.

——हरिशंकर परसाई

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3 comments:

  1. बहुत बढ़िया चर्चा और साथ में लाभकारी संदेश भी।
    आपको फोटो-लेख से टेक्स्ट लेने में मुश्किल पेश हुई, इसके लिए माफी।

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  2. बढिया काम किया है अनूप जी।शुक्रिया।

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